व्याख्यान विधि क्या है? गुण और दोष (Lecture Method)

व्याख्यान विधि (Lecture Method)

व्याख्यान विधि (Vyaakhyaan Vidhi ) सामान्यतः उपयोग में आने वाली शिक्षण विधि है। व्याख्यान शिक्षण की सबसे प्राचीन विधि मानी जाती है। यह आदर्श वादी विचार धारा की देन है। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आज भी इस विधि का शिक्षण की दृष्टि से कम महत्व नहीं है। 

व्याख्यान विधि (Lecture Method) : REET, CTET - SHIRSWASTUDY

विद्यार्थियों को ज्ञान प्रदान करने के लिए सबसे सरल विधि है। व्याख्यान विधि में शिक्षक समस्त विषय वस्तु को कक्षा में स्वयं ही संप्रेषित करता है। विद्यार्थी केवल निष्क्रिय श्रोता मात्र ही होता है। वे सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते। वस्तुत यह एकमार्गी प्रक्रिया (One way Traffic )  है। 

जिसमें अध्यापक मात्र प्रस्तुति करण पर अधिक बल देता है। यह विधि केवल सूचना प्रदान विधि है। इस विधि के द्वारा शिक्षक बहुत सारा ज्ञान कम समय में दे देता है।  उच्च प्राथमिक कक्षाओं में विभिन्न उदाहरणों, उपलब्ध सामग्रियों से निर्मित शिक्षण सहायक सामग्रियों, श्यामपट्ट के उचित प्रयोग, प्रश्नोत्तर, चित्रों द्वारा तथ्यों का स्पष्टीकरण कर इसे रोचक एवं कक्षा को सक्रिय बनाया जा सकता है।

समस्या समाधान विधि


व्याख्यान विधि गुण ( Lecture method properties )

  • विषय-वस्तु को क्रमबद्ध व सरलीकृत रूप से प्रस्तुत करना।
  • कम समय में पाठ्यवस्तु की पुनरावृत्ति संभव होती है।
  • छात्रों को यदि कोई शंका होती है तो वह उसी समय शंका को दूर की जाती है।
  • व्याख्यान विधि में शिक्षक को सक्रिय श्रोता माना जाता है
  • कम समय में विद्यार्थियों को अधिक जानकारी मिलती है
  • अध्यापक पाठ्यक्रम के विषय समय निर्धारित पर पूरे किए जा सकते हैं।
  • किसी पाठ् की प्रस्तावना के समय या सारांश, निष्कर्ष, जानकारी देने में अथवा विषयवस्तु की पुनरावृत्ति के लिए इस विधि का प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता हैं।
  • छात्र कम समय में, कम परिश्रम लिए ज्यादा ज्ञान अर्जित करते हैं।
  • यह विधि वैज्ञानिकों की जीवनी बताने एवं ऐतिहासिक घटनाओं के वर्णन में उपयोगी है।

व्याख्यान विधि के दोष ( Defects of lecture method)

  • इस विधि में विद्यार्थी निष्क्रिय रहते हैं। अतः यह बालकेन्द्रित सिद्धांत के विपरित है।
  • व्याख्यान विधि अमनोवैज्ञानिक है।
  • आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कशक्ति जैसे गुणों का विकास नहीं होता है।
  • विद्यार्थी को तर्क एवं चिंतन के अवसर नहीं है।
  • इस विधि में केवल श्रवण ज्ञानेन्द्रियो का प्रयोग होता है। जबकि ज्ञानार्जन करने के लिए सभी ज्ञानेन्द्रिय सहायक होती है।
  • सभी शिक्षक अच्छे वक्ता नहीं होते जिससे विद्यार्थी विषयवस्तु को नहीं समझ पाते।
  • इस विधि द्वारा केवल सूचनाएं ही दी जा सकती है।
  • शिक्षक छात्र का सम्बन्ध न्यूनतम होता है।
  • ‘करके सीखना' के सिद्धांत के विपरित है।

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